बाहरवीं शताब्दी से लेकर पन्दरहवीं शताब्दी तक भारत में अनेक सगुण और निर्गुण भक्ति धारा के अनेक कविओं ने अपनी कविताओं से जनमानस के दिलों को रोशन किया | इस काल को विशेषकर निर्गुण भक्ति धारा का स्वर्णिम युग कहा जा सकता है | इन कविओं की खासियत यह है की इन्होंने जो देखा वो लिखा | इस धारा के प्रमुख कविओं में कबीर, रसखान, दादूदयाल, मलूकदास प्रमुख हैं, इन्हीं में से एक नाम है अमीर खुसरो का | अमीर खुसरो भारत में खड़ी बोली के पहले कवि हैं | हकीकत में कड़ी बोली इतनी प्रसिद्धि दिलाने का काम अमीर खुसरो ने ही किया |
उत्तर प्रदेश के एटा जिले के पटियाली कसबे में सन १२५३ ई. (६५२ हि.) को जन्मे अमीर खुसरो ने भारत में सगुण भक्ति धारा की ईमारत को मजबूती से खड़ा किया जिसकी बुनियाद ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती (रह.) ने रखी थी | अमीर खुसरो ने सूफी सिलसिले में गुरु शागिर्द (पीर मुरीद ) की परंपरा को एक नयी उंचाई दी | उनहोंने सूफी सिलसिले में इबादत का अनिवार्य अंग कब्बाली को नया रूप दिया | आज कब्बाली का जो स्वरुप है वो अमीर खुसरो की ही देन है | ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती ने कब्बाली को को शुरू किया, इनके ज़माने में कब्बाली को ताली और ढफ (ढपली) के साथ गाया जाता था | अमीर खुसरो ने कब्बाली में कई संगीत यंत्रों का इस्तेमाल शुरू किया | इन्होने कई रागों की रचना की और उसका प्रयोग कब्बाली में किया |
अमीर खुसरो बहुमुखी प्रतिभा के धनी इंसान थे । वे एक महान सूफ़ी संत, कवि (फारसी व हिन्दवी, खड़ी बोली ) ही नहीं लेखक, साहित्यकार, राजनीतिज्ञ, बहुभाषी, भाषाविद्, इतिहासकार, संगीत शास्री, गीतकार, संगीतकार, गायक, नृतक, वादक, कोषकार, पुस्तकालयाध्यक्ष, दार्शनिक, विदूषक, वैध, खगोल शास्री, ज्योतषी, तथा सिद्ध हस्त शूर वीर योद्धा भी थे। अमीर खुसरो ने अपना पंचगज़ नाम का ग्रन्थ १२९८ से १३०१ ई. के बीच लिखा | इसमें पांच मसनवियाँ हैं, इसे खुसरो की पंचवदी के नाम से भी जाना जाता है | ये पांच मसनवियाँ हैं १) मतला-उल-अनवार, २) शीरी व खुसरो ३) मजनूँ व लैला , ४) आइने-सिकंदरी-या सिकंदर नामा ,५) हशव-बहिश्त | अमीर खुसरो की दूसरी रचनाएँ हैं मिफताहुल फुतूह, खजाइनुल फुतूह, नुह सिपहर, तुगलकनामा आदि |
अमीर खुसरो बहुमुखी प्रतिभा के धनी इंसान थे । वे एक महान सूफ़ी संत, कवि (फारसी व हिन्दवी, खड़ी बोली ) ही नहीं लेखक, साहित्यकार, राजनीतिज्ञ, बहुभाषी, भाषाविद्, इतिहासकार, संगीत शास्री, गीतकार, संगीतकार, गायक, नृतक, वादक, कोषकार, पुस्तकालयाध्यक्ष, दार्शनिक, विदूषक, वैध, खगोल शास्री, ज्योतषी, तथा सिद्ध हस्त शूर वीर योद्धा भी थे। अमीर खुसरो ने अपना पंचगज़ नाम का ग्रन्थ १२९८ से १३०१ ई. के बीच लिखा | इसमें पांच मसनवियाँ हैं, इसे खुसरो की पंचवदी के नाम से भी जाना जाता है | ये पांच मसनवियाँ हैं १) मतला-उल-अनवार, २) शीरी व खुसरो ३) मजनूँ व लैला , ४) आइने-सिकंदरी-या सिकंदर नामा ,५) हशव-बहिश्त | अमीर खुसरो की दूसरी रचनाएँ हैं मिफताहुल फुतूह, खजाइनुल फुतूह, नुह सिपहर, तुगलकनामा आदि |
अमीर खुसरो अपने पीर हजरत निजामुद्दीन औलिया देहलवी के अनन्य भक्त थे | इन्होने अपने पीर के लिए कई सारी रचनाएँ लिखीं | जब हज़रात निजामुद्दीन औलिया इस दार-ए-फानी से बिदा हुए तो इन्होंने उनकी याद में ये मशहूर रचना लिखी |
” खुसरो दरिया प्रेम का उलटी बाकी धार,
जो उबरा सो डूब गया जो डूबा सो पार
सेज वो सूनी देखकर रोऊँ मै दिन रात,
पिया-पिया मै करत हूँ पहरों पल भर सुख न चैन
गोरी सोये सेज पर मुख पर डारे केस,
चल खुसरो घर आपने सांझ भई चहुँ देस. “
कहा जाता है की अपने पीर हजरत निजामुद्दीन औलिया देहलवी के इंतकाल के अगले दिन ही ये भी इस दार-ए-फानी से कूच कर गए | इनकी दूसरी मशहूर रचनाएँ है…..
” छाप तिलक सब छीनी मोसे नैना मिलाय के ,
बात अगम कह दीनी रे मोसे नैना मिलाय के…”
” बहुत कठिन है डगर पनघट की,
कैसे भर लाऊँ मै मधवा से मटकी…”
अमीर खुसरो ने खड़ी बोली के अनेकों दोहों की रचना की इनमे से कुछ प्रमुख हैं …..
१)- “खुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूँ पी के संग।
जीत गयी तो पिया मोरे हारी पी के संग।। “
२)- “खुसरो ऐसी पीत कर जैसे हिन्दू जोय।
पूत पराए कारने जल जल कोयला होय।।”
३)- “नदी किनारे मैं खड़ी सो पानी झिलमिल होय।
पी गोरी मैं साँवरी अब किस विध मिलना होय।।”
४)- “रैन बिना जग दुखी और दुखी चन्द्र बिन रैन।
तुम बिन साजन मैं दुखी और दुखी दरस बिन नैंन।।”
५)- “खुसरो पाती प्रेम की बिरला बाँचे कोय।
वेद, क़ुरान, पोथी पढ़े, प्रेम बिना का होय।।”
अमीर खुसरो ने अपने पीर की शान में एक रंग लिखा…..
“आज रंग है ये माँ रंग है री आज रंग है
मेरे महबूब के घर रंग है री
सजन मिलावरा सजन मिलावरा
सजन मिलावरा मोरे आँगन को
आज रंग है री……..
मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया
मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया
निजामुद्दीन औलिया निजामुद्दीन औलिया
देस विदेस में ढूंढ फिरी हूँ
तोरा रंग मन भायो री……
आज रंग है …..
जग उजयारो जगत उजयारो
मै तो ऐसो रंग और नहीं देखी रे
मै तो जब देखूं मोरे संग है
आज रंग है ये माँ रंग है जी आज रंग है….”
आज भी किसी भी सूफी सिलसिले की कब्बाली की महफ़िल में यह रंग सबसे आखिर में इस रंग पढ़ा जाता है | या यूँ कहें कि इस रंग को तब पढ़ा जाता है जब महफ़िल अपने उरूज़ पर होती है | ये बो घडी होती है जब आत्मा का परमात्मा से मिलन होता है | अपने रचना काल से अब तब अमीर खुसरो की रचनाएँ कब्बाली के रूप में गई जाती रही हैं | आज किसी भी सूफी संत की दरगाह या खानकाह पर होने बाली कब्बालियों में अमीर खुसरो की रचनाओं को पढना किसी क़ब्बाल के लिए बड़े ही फख्र की बात होती है | दुनिया भर के सूफी सिलसिलों में अमीर खुसरो का नाम बड़े अदव के साथ लिया जाता है | पीर और मुरीद के प्रेम की ऐसी मिसाल दुनिया में कम ही देखने को मिलती है | जब तक इस दुनिया में सूफी सिलसिले आबाद रहेंगे और जब तक कब्बाली का जिंदा रहेगी तब तक हज़रत अमीर खुसरो का नाम जिंदा रहेगा |
” खुसरो दरिया प्रेम का उलटी बाकी धार,
जो उबरा सो डूब गया जो डूबा सो पार
सेज वो सूनी देखकर रोऊँ मै दिन रात,
पिया-पिया मै करत हूँ पहरों पल भर सुख न चैन
गोरी सोये सेज पर मुख पर डारे केस,
चल खुसरो घर आपने सांझ भई चहुँ देस. “
कहा जाता है की अपने पीर हजरत निजामुद्दीन औलिया देहलवी के इंतकाल के अगले दिन ही ये भी इस दार-ए-फानी से कूच कर गए | इनकी दूसरी मशहूर रचनाएँ है…..
” छाप तिलक सब छीनी मोसे नैना मिलाय के ,
बात अगम कह दीनी रे मोसे नैना मिलाय के…”
” बहुत कठिन है डगर पनघट की,
कैसे भर लाऊँ मै मधवा से मटकी…”
अमीर खुसरो ने खड़ी बोली के अनेकों दोहों की रचना की इनमे से कुछ प्रमुख हैं …..
१)- “खुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूँ पी के संग।
जीत गयी तो पिया मोरे हारी पी के संग।। “
२)- “खुसरो ऐसी पीत कर जैसे हिन्दू जोय।
पूत पराए कारने जल जल कोयला होय।।”
३)- “नदी किनारे मैं खड़ी सो पानी झिलमिल होय।
पी गोरी मैं साँवरी अब किस विध मिलना होय।।”
४)- “रैन बिना जग दुखी और दुखी चन्द्र बिन रैन।
तुम बिन साजन मैं दुखी और दुखी दरस बिन नैंन।।”
५)- “खुसरो पाती प्रेम की बिरला बाँचे कोय।
वेद, क़ुरान, पोथी पढ़े, प्रेम बिना का होय।।”
अमीर खुसरो ने अपने पीर की शान में एक रंग लिखा…..
“आज रंग है ये माँ रंग है री आज रंग है
मेरे महबूब के घर रंग है री
सजन मिलावरा सजन मिलावरा
सजन मिलावरा मोरे आँगन को
आज रंग है री……..
मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया
मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया
निजामुद्दीन औलिया निजामुद्दीन औलिया
देस विदेस में ढूंढ फिरी हूँ
तोरा रंग मन भायो री……
आज रंग है …..
जग उजयारो जगत उजयारो
मै तो ऐसो रंग और नहीं देखी रे
मै तो जब देखूं मोरे संग है
आज रंग है ये माँ रंग है जी आज रंग है….”
आज भी किसी भी सूफी सिलसिले की कब्बाली की महफ़िल में यह रंग सबसे आखिर में इस रंग पढ़ा जाता है | या यूँ कहें कि इस रंग को तब पढ़ा जाता है जब महफ़िल अपने उरूज़ पर होती है | ये बो घडी होती है जब आत्मा का परमात्मा से मिलन होता है | अपने रचना काल से अब तब अमीर खुसरो की रचनाएँ कब्बाली के रूप में गई जाती रही हैं | आज किसी भी सूफी संत की दरगाह या खानकाह पर होने बाली कब्बालियों में अमीर खुसरो की रचनाओं को पढना किसी क़ब्बाल के लिए बड़े ही फख्र की बात होती है | दुनिया भर के सूफी सिलसिलों में अमीर खुसरो का नाम बड़े अदव के साथ लिया जाता है | पीर और मुरीद के प्रेम की ऐसी मिसाल दुनिया में कम ही देखने को मिलती है | जब तक इस दुनिया में सूफी सिलसिले आबाद रहेंगे और जब तक कब्बाली का जिंदा रहेगी तब तक हज़रत अमीर खुसरो का नाम जिंदा रहेगा |
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खुसरो दरिया प्रेम का उलटी बाकी धार,
जो उबरा सो डूब गया जो डूबा सो पार |
khusro sahab ke bare me to itna mujhe pata hi nahi tha…….itne acche anubhav batne ke liye shukriya